Wednesday, April 12, 2017

आज से कल । जीवनचक्र

जब बस्ता रखा था कंधो पर उन हाथों ने,
ज़िम्मेदारी निभाने की उम्मीदें थी उन्हें मुझसे।

पर बोझ समझ नही आया, शायद उस ऊँगली के कारण।
कभी रास्ते भी भूला नही, पलटा नहीं बस आगे बढ़ा।

हाँ कुछ गड्ढे ज़रूर आये थे, जो की उड़ कर पार कर गया।
और कुछ खरोचें गिरने की, जिनका मुझसे ज़्यादा दर्द उन्हें हुआ।

वक़्त बीता ऊँगली वापस खिंच गई ज़िम्मेदारियों का एहसास आया,
बस एक खटकता ख़्याल मन में, क्या वो क़र्ज़ मैं चुका पाया?

जवाब मिला आज,
जब आई है ज़िम्मेदारी कंधों पर,
कोई ऊँगली नहीं बस एक हाथ, मेरी ऊँगली थामे..
कर रहा इंतज़ार उस बस्ते का, जिसे कंधे पर रख..

उम्मीदें जुड़ेगी ज़िम्मेदारी निभाने की।

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अंतर्द्वंद

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